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कहानी संग्रह >> सेवानगर कहाँ है

सेवानगर कहाँ है

ज्ञानप्रकाश विवेक

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4562
आईएसबीएन :81-263-1298-x

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सामाजिक कहानियाँ...

Sevanagar Kahan Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानियों में अपने समय की तहरीर ही नहीं, तहरीर के भीतर, सामाजिक हस्तक्षेपों की आवाजें भी शामिल हैं। कहानियों में बदलते जीवन मूल्यों की बेचैन कैफ़ियत..... सम्बन्धों के द्वन्द्व से पैदा हुई व्याकुलता तथा स्मृति की थरथराती छायाएँ हैं जो कहानियों को नया लहजा, परिवेश और पर्यावरण देती हैं।.... नये समाज में जो असुरक्षा का भाव तथा अकेलापन, चहलकदमी करते चले आये हैं, उनकी अन्तर्ध्वनियाँ भी इन कहानियों में निरन्तर सुनाई देती हैं।

कहानियों के केन्द्र में बेशक समाज है लेकिन ऐसा भी प्रतीत होता है जैसे कथाकार समाज के भीतर जाकर आदमीयत की शिनाख़्त ही नहीं, उसकी पैरवी भी कर रहा है।

संग्रह की कहानियाँ, जिन्दगी की रेत पर कई सारे सवालिया निशान छोड़ती चली जाती हैं-समाज इतना वाचाल है तो मन में इतना सन्नाटा क्यों ?....बाजार में इतना वैभव है तो आम जन के पास सिर्फ दर्द का टाट क्यों ?....आँखों में अगर आँसुओं की नमी है तो मनुष्य इतना निस्संग क्यों ?

कहानियों में एक निरन्तर जिरह है जो कभी समाप्त नहीं होती। शायद यही वजह है कि कहानियाँ भी समाप्त होने के बावजूद, समाप्त नहीं होतीं। किसी बिम्ब की तरह अपनी छोटी-सी जगह बना लेती हैं।...इन्हीं विशेषताओं के कारण चर्चित कथाकार ज्ञानप्रकाश विवेक के इस नवीनतम संग्रह की कहानियाँ पाठकों को अवश्य प्रभावित करेंगी।

कैद


आसमान कितना छोटा है उसके लिए। छोटे-से कैनवस पर जैसे एक धब्बा आसमान। यह प्रतीक थोड़ा रूमानी है। हकीकत इसके विपरीत है। दीवार के आले से सिर निकालकर आसमान देखना, बेबसी और बेचैनी के अनकहे बयान जैसा होता है।

वह आसमान को थोड़ा-सा देख सकता है। थोड़-सा वह उस दीवार को भी देख सकता है जो गुमटी के एकदम सामने है, जहाँ वह कील गाड़कर अपनी सद्दी का माँझा बनाता था और देर तक पतंग उड़ाते हुए पेच लड़ाता था। प्रतिद्वन्द्वी की पतंग कटती तो वह खुशी से झूम उठता, ‘‘वो काटाऽऽऽ !’’
आले से बाहर सिर निकालकर वह सामने बिछी चारपाई को देख सकता है। छत पर कोई चिड़िया, कबूतर या कव्वा चला आये तो वह उन्हें भी देख सकता है। वह बार-बार इन्हीं चीजों को देखता होगा। उकता जाता होगा। फिर अकेली छोटी-सी गुमटी में सिमट जाता होगा। गुस्से में अपने बाल नोचता होगा। कुछ बुदबुदाया होगा। हो सकता है, वह फर्श पर थूक देता हो तभी तो उसकी आँखों में आक्रोश होता है या फिर दुख !

उसे देखो तो उसकी आँखें गुर्राती हुई नजर आती हैं। और चेहरा ! जैसे मनुष्य का चेहरा हटाकर किसी जानवर का चेहरा लगा दिया हो। वह हमेशा बुदबुदाता, बड़बड़ाता नजर आता है। उसका बस चले तो सामने बैठी चिड़िया को पकड़े और कुतर दे पंख। उसका बस चले तो सामने उड़ते रद्दी अखबार को मसल दे। उसका बस चले तो इस कोठरी को गिरा दे जिसमें वह कैद है। कैद बेमुद्दत !

यह पुराने इलाके की बस्ती का छोटा-सा मकान है। खुली छत। छत की एक गली में बाजार दुकानें। आमदरफ्त। चहल-पहल। शोर। दुकानदार बहस। ठहाके। छत के बीचोंबीच यह कोठरी है। कोठरी में लड़का है। लड़के की उम्र तेरह चौदह है कोठरी का भूगोल बेहद सीमित है। एक दरवाजा है जो बाहर से बन्द रहता है। सांकल है। जिस पर ताला जड़ा रहता है। दीवारों में कोई खिड़की नहीं। एक आला है। आले का आकार नौ इंच बाइ एक फुट का है। लड़का आले से निकलना चाहे तो नहीं निकल सकता। इस आले के जरिए उसे थोड़ी-सी हवा, थोड़ी-सी धूप मिलती रहती है। इसके अलावा जो तीन वक्त का रोटी भी। इस आले से उस लड़के तक पहुँचती है। कैद किए गये बच्चे के साथ, बाहरी दुनिया का रिश्ता लगभग खत्म हो चुका है। कोई परिवार का सदस्य जब रोटी देने ऊपर आता है तो लड़के की बेचैनी बढ़ जाती है। वह दरवाजा पीटता है। हुँकारता है। बड़बड़ाता है। लेकिन जाने वाला जा चुका होता है।

सीढ़िया उतरने की आवाज। फिर सन्नाटा। फिर बेबसी। फिर कैद। कोठरी। अँधेरा। वह थाली सरकाता है। कुछ खाता  है। कुछ फेंकता है। कभी-कभी जब वह बहुत ज्यादा आक्रामक होता है। तो आले में रखी थाली को बाहर फेंक देता है। लेकिन यह आक्रामकता खुद उसके लिए नुकसानदायक होती है। सजा के तौर पर उसकी एक वक्त की रोटी बन्द हो जाती है।
वह हर वक्त आले के पास रहता है। यही, रोशनी हवा, और आवाजों का रास्ता है। इसी आले से, वह अपने हिस्से की बहुत सीमित दुनिया को देखता है। कभी-कभी वह आले के पास, अपनी उँगली से कुछ लिखने की कोशिश करता है। किसी ने नहीं पूछा कि वह क्या लिखता है ?

ऐसा लगता है जैसे वह हर लड़ाई हार चुका है। हार के निशान उसके चेहरे पर है, किसी ऐसे जख्म की तरह जो दिखाई नहीं देता। वैसे जख्म का एक बड़ा-सा निशान उसके माथे पर है। एक दिन गुस्से में आकर उसने अपने माथे को दीवार से टकरा दिया था। खून निकल आया था। खून रिसना बन्द हुआ तो घाव बन गया।
घाव पर मक्खियाँ भिनकती हैं। घाव भरता नहीं। हरा रहता है।

कभी-कभी वह आले के बीच अपना चेहरा टिका देता है। थक चुकने, टूट चुकने और निढाल हो चुकने के बाद वह ऐसा करता है।

तब वह बेबस नजर आता है। हर तरफ शोर-हंगामें। कारों, स्कूटरों के हार्न। बच्चों की आवाजें और कोठरी में कैद एक बच्चा।

उसका चेहरा सख्त है। आँखें भारी, लाल। पलकें फूली हुई। आँखों के नीचे का हिस्सा सूजा हुआ। बाल खिचड़ी। सख्त और मैले। कपड़े बेतरतीब। एक अजीब-सी दुर्गन्ध पूरे शरीर से। हाथ मोटे खुरदरे। नाखून बढ़े हुए। नाखूनों में मैल।

कभी-कभी वह आले से ओझल हो जाता है। तब वह दरवाजे के पास जा बैठता है। दरवाजे को खटखटाता है। झिंझोड़ता है। जोर से थपथपाता है। दरारों से झांकता है। रोशनी की पतली लकीरें। दरारों से छनकर कोठरी के अँधेरे फर्श पर गिरती हैं। वह उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है।

कोठरी में बदबू है। मेहतर से हफ्ते में एक बार सफाई कराई जाती है। कोठरी साफ कराना, पूरे घर के लिए बहुत बड़ा अभियान....बल्कि बहुत बड़ा झंझट होता है घर के सब लोग इकट्ठा होते हैं। पिता, मां, बहन और बड़ा भाई सब ! डर वितृष्णा, उपेक्षा, दया और तिरस्कार, कई सारे भाव होते हैं। पिता के मन में लड़के के प्रति वितृष्णा तो बहन के मन में दया। माँ डरी हुई तो बड़ा भाई तिरस्कार का भाव लिए मुँह बिचकाता, थूकता।
घर के सब लोग मिलकर लड़के के मुँह पर कपड़ा बाँधते हैं। इसलिए कि वह अपने दाँतों से किसी को काट न ले। वह ऐसा कर भी चुका है। इसलिए हिफाजत के लिए यह कदम उठाए जाते हैं। फिर हाथ बाँधे जाते हैं, कि वह नाखून न गढ़ा दे। फिर टाँगे कि वह भाग न खड़ा हो।

वह कसमसाता है। विरोध करता है। गुस्सा, गालियाँ और बड़बड़ाना। बेशक उसके मुँह पर कपड़ा बँधा होता है फिर भी वह गालियों जैसी कोई चीज बक देता है।
घर के लोग उसे काबू में कर लेते हैं। यानी उसे पूरी तरह जकड़ लेते हैं। उनमें से कोई तीन-चार बाल्टियाँ पानी की लगातार लड़के पर डालता है। लड़के के कपड़े भीग जाते हैं। दुर्गन्ध कुछ कम हो जाती है। मेहतर उसके कपड़े उतारता है। फिर साबुन से नहलाता है। कपड़े बदलता है। वह भारी कम शरीर का लम्बा-चौड़ा इनसान है। सख्त जान दिमाग का कोरा। लेकिन भीतर से नर्म। लड़का जरा ऊँ-चूँ करे तो थप्पड़ गाल पर ! घर के लोग लड़के को पिटता देखते रहते हैं। बहन की आँखें नम हो जाती हैं।

लड़के को नहलाने और कोठरी साफ करने के वह आदमी बीस रुपये लेता है। उसे बीस रुपये कम लगते हैं। वह इस गन्दे काम को छोड़ भी देता है। लड़के के प्रति उसके मन में कोई लगाव सा पैदा हो गया। मेहतर सफाई करता है। लड़का बँधा रहता है। फर्श पर बैठ जाता है। सामने बिछी चारपाई पर बहन बैठी होती है, अपने भाई को देखती-अपने भाई संजू को देखती !

संजू से पूरा मोहल्ला भयभीत था। स्कूल, मौहल्ले, परिवार-हर कहीं यह तय हो चुका था कि वह पागल हो चुका है- खतरनाक पागल ! उसने तीन-चार बार स्कूल के बच्चों की पिटाई की अपनी टीचर तक को गाली दी। चिढ़ाया। घर आते वक्त मौहल्ले की लड़की संगीता को जोर से मुक्का मारा और दयालचन्द्र दुकानदार को अड़ंगी मारी। दयालचन्द्र सँभल न सका और धप्प-से गिरा। संजू ने अपनी ही नहीं, कई सहपाठियों की किताबें फाड़ दीं।

संजू की हरकतों से घर के लोग परेशान हो उठे। गंडा ताबीज। झाड़-फूँक। ओपरा उतारने के टोटके सब आजमाये। बीमरी बढ़ गयी। अस्पतालों के चक्कर लम्बा। धैर्य कम रोजी-रोटी का चक्कर। काम धन्धे की फिक्र। फिक्र संजू की भी। अच्छा-खासा लड़का था। स्कूल जाता था। हर साल इम्तिहान पास करता था। घर आकर होमवर्क करता था। खेल-कूद में उपद्रव कर बैठता। वैसे तो बिलकुल ठीक था। थोड़ा स्वभाव का गरम। मिजाज का लड़ाकू।

डाक्टरों ने संजू के रोग की जड़ तक पहचान ली। बताया कि उसकी निरन्तर उपेक्षा की गयी है। संजू ने इस उपेक्षा को भुलाया नहीं। यही उपेक्षा गाँठ बन गई। मन पर असर कर गई। संजू का दिमाग असन्तुलित हो गया।
मालूम हुआ की स्कूल का सिस्टम जिम्मेदार है। एक टीचर ने उसे लगातार बिना किसी कारण के बैंच पर खड़ा किए रखा-बीस दिन तक। टीचर आते ही संजू को बैंच पर खड़ा होने का आदेश देता। पढ़ाने लगता। बच्चे पीछे मुड़मुड कर देखते। हँसते।
संजू का कसूर इतना था कि उसने टीचर से कोचिंग के लिए मना कर दिया था।
 एक, दूसरी टीचर थी जो संजू की कॉपी चैक ही नहीं करती थी। हुआ यूँ था कि एक बार वह अपनी टीचर को देखकर हँस पड़ा था टीचर ने उसी वक्त संजू को बुलाकर कहा था कि ‘लड़के तुम्हें ऐसी सजा दूँगी कि हँसना भूल जाएगा।’

संजू सचमुच हँसना भूल गया था। या वह गुस्से में होता या फिर कुछ सोचता। कुछ अनर्गल बोलता हुआ। सबसे बुरा असर उसके मन पर तब पड़ा जब पूरी क्लास विज्ञान मेले और अप्पूघर घूमने गयी। उस पिकनिक में संजू को शामिल नहीं किया गया था कारण यह है कि इस दौरान उसने दो-तीन लड़कों को पीट दिया था और बहाना यह कि वह रास्ते में भी ऐसी शरारतें कर सकता है।

संजू ने अपनी टीचर से बहुत मिन्नतें की, बहुत दयनीय भाव से कहा ‘‘मैडम जी मेरे को भी ले चलो। अकेला मेरे को छोड़कर क्यों जा रहे हो ?....मुझे भी ले चलो मैडम’’ कभी वह सर के पास जाता तो कभी मैडम के पास ! उसकी सारी प्रार्थनाएँ सारी अर्जियाँ खारिज कर दी गयीं।

संजू के मन में कोई डर जरूर था। इसके बावजूद उसने अपने सहपाठियों से कहा कि वह विज्ञान मेले में जरूर जाएगा अप्पूघर भी जरूर जाएगा। उसे कोई भी नहीं रोक सकता लेकिन उसे रोक दिया गया। वह नहीं जा सका। उसके दस-दस के पाँच नोट जेब में पड़े रह गए। वह उस बस के पास खड़ा रहा जिसे मेले जाना था। बस चली। सहपाठियों ने हाथ हिलाये। किलकारियाँ मारी। खुश हुए।
संजू कुछ दूर बस के पीछे भागा। शायद आखिरी वक्त उसे बस में चढ़ा लिया जाये। लेकिन टीचर-मैडम सब  मिलकर संजू को सबक सिखाना चाहते थे।

घर आया तो वह दूसरा संजू था। कुछ-कुछ बौराया। पगलाया। विक्षिप्तियों-जैसा। उपेक्षा मन पर असर कर गयी। दिमाग ने सोचना बन्द कर दिया और जो सोचा वह विध्वंसक था। अगले दिन स्कूल जाने का मन नहीं था। लेकिन भेजा गया। बच्चे चहक रहे थे, अप्पूघर। झूले। वाटरफाल। पापकार्न। आइस्क्रीम, मस्ती। खुशी .....
संजू ताव खा गया। तीन सहपाठियों से मारपीट की। एक का सिर दीवार से टकरा दिया। मैडम ने रोका तो उसकी बाजू पर इतने जोर का काटा कि खून निकल आया।

टीचरों ने पकड़ने की कोशिश की। सो उन्हें धकेल दिया। टीचरों ने कहा, ‘‘संजू पागल हो गया है। खतरा है स्कूल के लिए।’’ बच्चों ने टीचरों की बात दोहरायी, ‘‘संजू पागल हो गया है। हम सबके लिए खतरा है।’’
संजू बदहवास पगलाया तोड़फोड़ करता। मारपीट करता। किसी जंगली जानवर जैसा। बच्चे संजू को देखते। शोर मचाते, ‘‘भागों संजू पागल !....वो रहा संजू पागल !’’ बाहर की दुनिया संजू से डरी हुई थी। अपने भीतर की दुनिया से संजू डरा हुआ था। संजू से लोग परेशान। संजू से घर परेशान। संजू से स्कूल परेशान। और संजू...परिवेश से परेशान !


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